यही वो जगह है यही वो फिजायें
यहीं आ रही होगी हमारी सदायें
यही वो घर है जहाँ हमारी आवाज
यहीं वीणा के स्वर थे यहीं थे साज
यहीं पर कही हमने देखे थे सपने
यहीं सजाये थे घरोंदे हमने अपने
कतरा-कतरा जोड़ लम्हा-लम्हा पिरोया
बहुत-कुछ पाया और थोड़ा-बहुत खोया
सींचे जान लगाकर हमने पौधे और क्यारी
आहिस्ता-आहिस्ता संवरी दुनिया हमारी
बाँहों में बाहें डाल कर थाम हाथो में हाथ
कई बसंत पतझड़ देखे हमने साथ साथ
एक से दो, फिर दो से हुए चार
देखते देखते बढ़ा कितना परिवार
वो किलकारियां गूंजी और ठहाके
हर बार सँवरे सब अपनों में आके
वो लड़ना झगड़ना, रूठना मनाना
झट आँखें दिखाकर झट मुस्कराना
अचानक कुछ यूँ हुआ कि ये सब छोड़कर,
हम चले आये कहाँ, अपनों से मुंह मोड़कर
अब उस बाग़ में है मातमी सन्नाटा घनघोर
टूट कर बिखर गया हो जैसे सब चारों ओर
हर कोना हर चौखट राह हमारी तकते हैं
कैसे कहें हम कि अब आ नहीं सकते हैं
पर ज्यूँ हर रात के बाद सुबह निखरती है
आकाश पर अरुणिमा की छठा बिखरती है
फिर आएगी मुस्कान और लौटेगी बहार
हम न होंगे तो क्या खिलेगा हमारा संसार
ये सिर्फ सोच नहीं ये वीणा का विश्वास है
नजर उठा के देखो हम यहीं आसपास है
Khoobsurati se rachaa h bhai🙏🏻
Bahut achi apni kavitao me rakho ma ko
सुंदर कविता। भावना की अच्छी अभिव्यक्ति।
🙏
नजर उठा के देखो हम यहीं आसपास है….TRUE
Kya baat hai bhai.. Har har Mahadev