इश्क़ किया है मैंने तुमसे,
पर तुमसे कोई दरकार नहीं
ये कुछ जुदा सा, अलग सा है
इसमें कोई इज़हार-इक़रार नहीं
तेरी बंदिशें, तेरी मजबूरियों के बहाने
इसके बीच, मेरा इश्क़ क्यों मुर्दा रहे
जब रब की तरह तुझे चाहने लगे हैं
तो बन्दों से फिर क्यों पर्दा रहे
उस रोज मैंने, आसमां को देख
रब को जोर से पुकारा था
नाम तो किसी का नहीं लिया
पर तेरी ओर ही इशारा था
चाहत है कोई सौदा थोड़ी
बदले में कुछ नहीं मांगूगा
तेरी यादों के तकिये पर सोऊंगा
तेरे ख़्वाबों के ख़ुमार में जागूँगा
न मेरे कन्धों को नसीब हुआ
कि बनते सिरहाना तुम्हारा
वो तो आम मोहब्बत में होता है
इश्क़ तो है अलग रूहानी हमारा
मिलना, मिलाना, दिल्लगी
अब लगने लगे सब बेकार
ये रूहानी है इश्क़ मेरा
और तू सिर्फ उसकी किरदार
अब रही न मिलन की चाहत
न बेवफाई, न बिछड़ने का डर
मैं, मेरी फ़क़ीरी और मेरा इश्क़
न कोई जलन, न कोई बुरी नज़र
Super hai vishwas bhai
बहुत खूब !!
“मैं, मेरी फ़क़ीरी और मेरा इश्क़
न कोई जलन, न कोई बुरी नज़र“ ……….. दिल छू लिया आख़िरी पंक्तियों ने 👌
Very philosophical yet romantic vishwas
Bahut khoob👌👌