सोचो की अगर सीमा पर खड़े जवान को –
सर्दी लगने लगे पहाड़ों में
या कांपने लगे वो जाड़ों में
मनाना गर चाहे घर जाके दिवाली या होली
बंदूक छोड़ याद आये बिंदी, कुमकुम, रोली
प्रियतमा की याद सताने लगे
मां का वो आँचल बुलाने लगे
वो गाँव का घर और यारों की टोली
अल्हड यादें वो सूरतें कई भोली
उसे याद आये गर अपने बच्चे की किलकारी
बाबूजी पर छोड़ी जो सारी जिम्मेदारी
तो नहीं कर पाएंगे –
हम और आप, जो अपने ड्राइंगरूम में बैठकर
चाय की चुस्कियों के साथ, टीवी को देखकर
करते हैं बड़ी बड़ी बातें फ़ल्सफ़े की
मानवाधिकार, नुकसान और नफे की
और फिर निकल पड़ते है मजे से रफ़्तार मेँ
कही किसी सिनेमा, पार्क, या किसी बार मेँ
तो शांति और चैन से बीत रहे हर लम्हे के नाम
ईश्वर का आभार और वीर जवानो को सलाम
(ये रचना ‘खिलते हैं गुल यहाँ’ में प्रकाशित हो चुकी है)