होती है दूरियों में गलतफहमी
रिश्तों के फूल, मुलाकात में खिलते है
आओ ना कभी चाय पर मिलते हैं
हम दोनो को ही है शिकवे गिले
इन दरारों को एहसासों से सिलते है
आओ ना कभी चाय पर मिलते हैं
वफ़ा बेवफाई के इल्जाम हैं बेमानी
थोड़ा तुम थामो, थोड़ा हम संभलते हैं
आओ ना कभी चाय पर मिलते हैं
जख्म अब बस, मरहम की है तलब,
खुरदुरे पाहन पर तो पाँव ही छिलते हैं
आओ ना कभी चाय पर मिलते हैं
गर्माहट में ही पिघलेगी, उलझनों की मोम
रूबरू होकर ही ख्वाइशों के लब हिलते हैं
आओ ना कभी चाय पर मिलते हैं
Nice lines…
Super……lets meet for Tea Vishwas !!
Nice
Very nice 👌
Vry beautiful poem👌👏