सूर्य
संघर्षों के महासागर से
उछाल मारना चाहती हूँ,
चमत्कार की एक झलक देखना चाहती हूँ ,
हाँ! मैं सूर्य की दिशा मोड़ना चाहती हूँ ।
सूर्य झूलस गया है,
लाचार हो गया है
उसकी विरह वेदना को
शान्त करना चाहती हूँ ।
बादलों को देख कर
खुश हो जाया करती थी कभी,
सूर्य से मिला जब बादलों का उपहार
खुल के आज रुदन करना चाहती हूँ ।
दिशा तो बदलनी होगी उसकी
नदिया के पार तो ले जाना ही होगा,
मेरी गोदी में आया है जो वो
मुझे प्रेम तो करना ही होगा ।
डूबो देना है अबकी बार सूर्य को
सागर के बीचों- बीच
उसके सारे ताप को हर लेना है,
वर्षों से वह तप रहा उसको शीतलता देना है ।
देख जरा सूर्य मेरे
उस नीले गगन में तुझे,
कुछ दिखाई देता है क्या?
एक श्वेत प्रतिबिम्ब,
मिलन को आतुर है ।
जा कर अपनी धधकती आग बुझा
अबकी बार तू भी ठंडा हो जा,
बूंदें पड़ने देना अपने ऊपर खूब
अब कोई छाता न तान लेना ।
तेरे चेहरे का तेज लाना है
फिर अपनी किरणों को
मन भर के बिखेरना,
अपनी धरा के चारों ओर ।
शारदे
मैं कोई दुःख की गगरी नहीं हूँ
जो धक्का लगने पर फूट जाऊं,
बिखर जाऊं,
और आसूंओं में बहती जाऊं ।
मैं अडिग हूँ,
बढ़ती जाऊँगी
अपने पथ पर ।
मुझे शिखर पर जाना है
हासिल करना है
वो जीत वाले आंसू,
प्रेम वाला सुकून ।
ऊथल-पुथल तो,
सबके राह में होता है,
क्या मिट जाने वाला
कभी उठ पाता है ?
मुझे राह के सारे कंकड़-पत्थर
बटोरने है,
फिर उसी से रास्ता बनाना है ।
बुलंद कर अपनी आवाज हमेशा
मुझे तो औरों की आवाज बनना है,
शारदे ! तू जाग,
क्योंकि औरों को जगाना है,
तू चमक क्योंकि,
औरों को चमकाना है ।
तू भूल जा दुनियादारी
बस निकल पड़ विजय यात्रा को,
तुझे समेटना है,
अपनी शक्तियां सारी,
फिर फैलाना है
चारों तरफ उजियारा ।
शारदे !
काली रातों से कह दो
‘काली’ ने अवतार लिया है,
चलती चल
पढ़ती चल- लिखती चल ।
ताने, ऊँची आवाजें
सब रास्ते में आयेगी,
शारदे, संघर्ष कर
जीत तू जायेगी ।
तू तो सोना है
तपने पर निखर आएगी।
हे शारदे !
तू जगा अपनी शक्तिओं को,
विपत्तियों को काट दे
दुःखों को मात दे।
बुराइयों का तू नाश कर
धीरे-धीरे अपनी आवाज तू बुलंद कर
तू आगे बढ़- तू आगे बढ़ ।
प्रेम
प्रेम में बुद्धि का क्या काम
बुद्धि में प्रेम डाल दो ना!!!
जैसे दाल में घी डालते है
जैसे मुँह में शहद डालते है..
जानते हो!
बुद्धि तो बुद्धिमानो का विषय है
यह तो उद्धव का प्रसंग है
गोपियों का विषय तो
प्रेम है!
प्रेम!
साधारण सी गोपियों को प्रेम का पर्याय बना देता है,
तोड़ दिया जिसने अपना वचन भक्त की खातिर,
ऐसा है प्रेम
जो भगवान को भी भक्त का दास बना देता है..
प्रेम आंखन से ही नहीं
बातन से भी टपकता है
मीरा की बातन ते टपका प्रेम
कबीर की आंखन ते टपका प्रेम…
प्रेम कहने का विषय नहीं है,
प्रेम बताने का विषय नहीं है,
प्रेम समझने और समझाने का विषय नहीं
प्रेम भीतर का विषय है
बाहर का विषय कहाँ है प्रेम ?
बाहर देखोगे तो
प्रेम अंदर से बाहर का द्वन्द दिखेगा
जाति, धर्म, नस्ल, देश काल से लड़ता दिखेगा
क्रांति की मसाल लिए आगे ही आगे चलता दिखेगा..
कभी-कभी प्रेम ठंठा जल सा लगेगा
तो
कभी-कभी कुरीतियों और कुप्रथाओ की डालियों को
छाटता दिखेगा…
प्रेमी हरि के शांत रूप सा कभी लगेगा
तो
कभी काली सा भी हुंकार भी भरेगा…..
Very nice poetry mam.