बचपन के मरे हुए स्वप्न
उस अनोखे स्वप्न को,
स्मृति पटल ने ले डुबाया |
काल के ही गाल में,
वह और भी गहरा समाया ||
अवलंबित था गहरी नींद पर,
कुछ देर ही ठहरा रहा,
करवटों की आहटों से,
न डरा, अविरल बहा ||
ला चुका था जिंदगी में,
वो अनागत दृश्य भी,
कल्पना के पर लगाए,
कुछ अनूठे परिदृश्य भी ||
एक नक्शा खींचकर,
खजाना भी मैंने खोद डाला |
आज तक अज्ञात थे जो,
विज्ञान के वो सूत्र मैंने खोज डाला ||
एक बार सपने में राजा कहीं का बन गया था,
युद्ध मेरा अपने पड़ोसी से ठन गया था |
पापा ने देखा ये आक्रमण – आक्रमण क्यों चिल्ला रहा है?
झकझोर कर मुझको जगाया,
जाग फिर भी मैंने न पाया |
उन्होंने जब ज्यादा जोर लगाया,
और फिर से मुझको बुलाया -ये आक्रमण – आक्रमण क्यों चिल्ला रहे हो,
मैंने कहा ऐ मूढ़ सैनिक!
चुप रहो,तुम भी करो आक्रमण क्यों बेकार में झल्ला रहे हो?
शत्रु की तो बात छोड़ो,
वो सैनिक मुझी पर झपट पड़ा,
सहसा अचानक गाल में एक झापड़,
मेरे कहीं से आ पड़ा |
आवाज़ उसके साथ आयी,
मूर्ख है तूँ, न कि राजा -गोसाई |
बचते -बचाते झापड़ों से,
मैं युद्ध भूमि में ही मूर्छित होकर गिर पड़ा |
जब होश में आया तो देखा -उसी सैनिक के बगल में,
एक टूटी खाट में लेटा पड़ा ||
स्वप्न की ये खासियत है,
पूर्णता के पूर्व ही,ट
ूट जाता है कहीं,
तभी कहलाता स्वप्न वो, न होता सही ||
कब पूर्ण होगी ये प्रतीक्षा?
कब पूर्ण होगी ये प्रतीक्षा?
चक्षुओं से और कब तक,
लेती रहेगी अश्रुओं की मौन भिक्षा?
कब पूर्ण होगी ये प्रतीक्षा?
कब पूर्ण होगी ये प्रतीक्षा?
निर्मल हृदय – आकाश में,श्याम वर्णित मेघ अब छाने लगे,
प्राण भी अब वाद्य होकर,वेदना के गीत हैं गाने लगे ||
निशब्द हूँ मैं,आत्मा मेरी सिसकने है लगी,
अन्तर्निहित वह वेदना,अब मूक हो बहने लगी |||
अब तो बताओ प्रेम मेरे,
कब तक चलेगी ये परीक्षा?
कब पूर्ण होगी ये प्रतीक्षा?
कब पूर्ण होगी ये प्रतीक्षा?
हुँकार
अश्रु बहुत तूँ पी चुका,
अंगार बनाकर अब उगल |
नींद भर तूँ सो चुका,
हे वीरवर ! अब जाग, चल ||
शस्त्र भू पर क्यों पड़े,
तूँ शस्त्र धर, संग्राम कर |
मातृभूमि माँगती है,
रक्त का निज दान कर ||
कर सृजन खुद का प्रकाश,
चंद्र बनकर क्या करेगा,
बन सके तो सूर्य बनकर तूँ दिखा |
यूँ तो चढ़े हैं शीश कितने,
भारती की गोद में,
अब देर न कर काटकर,
एक शीश अपना भी चढ़ा |||
गणतंत्र
फूला जिनसे गणतंत्र सुमन ,
हँसते – हँसते जो वेदी पर झूल गए,
उनके गौरव इतिहासों को,
हम पन्नों में लिखकर भूल गए
आज कहाँ मीराबाई के राग अलापे जाते हैं?
आज कहाँ दादू – कबीर के शब्द सुनाये जाते हैं?
आज कहाँ महाराणा की हुँकार सुनाई पड़ती है?
आज कहाँ लक्ष्मीबाई की ललकार सुनाई पड़ती है?
आज कहाँ बापू सा कोई व्रती दिखाई पड़ता है?
आज कहाँ बल्लभ पटेल सा यती दिखाई पड़ता है?
आज कहाँ आजाद – भगत की गाथा गायी जाती है?
आज कहाँ नेताजी की जयकार लगाई जाती है?
आज कहाँ अर्जुन को कोई योग सिखाता है?
आज कहाँ रामों को कोई आदर्श बनाता है?
आज कहाँ साहित्यों में वो भाव दिखाई पड़ते हैं?
आज कहाँ उपनिषदों में वो चाव दिखाई पड़ते हैं?
आज कहाँ किसके अधरों में इंकलाब चिल्लाता है?
सोये वीरों को आज कौन झकझोर जगाने आता है?
आज पड़े हम सघन तिमिर की अंधी, गहरी खाई में,
भूले अपने ही अतीत को दासता की परछाईं में,
ओट लिए हम धर्मों की कायरता दिखलाये जाते है,
युद्ध जरूरी जहाँ हुआ, वहाँ शास्त्र सुनाये जाते हैं |
जाने कितने गणतंत्र गए, हम बधिरों के न कर्ण खुले |
भारत माँ का श्रृंगार धुला, हम अंधों के न चक्षु खुले || [1962 भारत – चीन युद्ध ]
गणतंत्र आज भी आया है, क्या सोते ही रह जाओगे?
आज याद कर वीरों को क्या फिर पन्नों में दफनाओगे?
जागो तुम हे वीरप्रवर ! अब तो प्रचंड हुँकार करो,
विस्तृत नभ के कोनों में जय भारत का अनुनाद भरो ||||
All the poems are very well. Every poem has glimpse of truth.