
माथे पर तिलक लगा के 
भव्य सा कवच सजा के 
स्वर्ण  कुंडल चमका के 
निज ओज को दमका के 
रणचंडी को करते ध्यान 
कर के इष्ट देव आव्हान 
जब निकलते हैं समर को 
हौसला की जैसे अमर हो 
हर योद्धा खुद को ‘अर्जुन’ ही मानता है 
जीतेगा तो सिर्फ वही, बस ये जानता है 
पर ये भूल वो जाता है
उसे नजर नहीं आता है 
कि उसके साथ खड़ा कौन है 
कर्ता वो है, लगे भले ही मौन है 
चक्रधारी कृष्णा या शकुनि कुटिल
जीत-हार के बीच. वही गुत्थी जटिल  
जो गर बंसी वाला साथ है
फिर डरने की क्या बात है 
गर शकुनियों का जाल है  
तो मिलता सिर्फ काल है 
इसलिए 
शह देने वाले को पहचान पाओगे 
तभी तो तुम ‘अर्जुन’ कहलाओगे  
(ये रचना ‘RootsPost’ में प्रकाशित हो चुकी है)

 
							
“शह देने वाले को पहचान पाओगे
तभी तो तुम ‘अर्जुन’ कहलाओगे”
बहुत ख़ूब 👏🏻👏🏻👏🏻👏🏻👏🏻